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विरळ अनंत वाहणार्या सुगंधासारखी,

'गीता' 'कुराणा'तल्या अलौकिक छंदांसारखी,                  

अथांग अशा स्रुष्टीच्या वासामधे ती प्राणाच्या स्पंदनासारखी,               

ती ईश्वराच्या कल्पनेमधे तपलेली,   

सत्त्याइतकीच सुंदर आहे,             

ती सृष्टीच्या तहानेमधे,    

साठवलेला गोड असा सागर आहे,                  

ती शितल असा उच्छवास आहे,              

हवेच्या तप्ततेला मिटवणारी,         

ती पहाटेच्या स्वच्छ आकाशातले, 

कृष्णधवल मेघ हटवणारी आहे,   

ती 'स्वरराजा'चे गीत बनूनी,           

आवळलेले आंदोलीत 'स्वर' आहे,   

ती 'नटराजा'चे नृत्य बनुनी,           

ह्रदयाच्या उदास धडधडीमधील सुद्धा 'लय' आहे ,


काय प्रेमाच्या शाईने लिहू 'आई'?   

काय अमृताच्या अर्काने लिहू 'आई' ?            

काय शब्दांच्या नि:शब्दांनी लिहू' आई' ?                          

ती फक्त शब्द नाही,ग्रंथ आहे,महाकाव्य आहे,      

तीला देवांच्या आराधनेने गढलेले आहे,                           

तिला देवतांनी आपल्या अलंकारांनी सजवले आहे,                

ती फकीरांची,दरवेशांची 'मन्नत' आहे,                    

ती मंदिरातली 'मुरत' आहे!


कवी: डाॅ. नितीन आबा पवार (शिरुर)

मो: 9130452877/7776033958

ई मेल- np197512@gmail.com

Én kommentar


Deepak Bhalerao
Deepak Bhalerao
25. nov. 2020

छान वर्णन केले आहे !

Lik
टीप: विश्व मराठी परिषदेच्या ब्लॉगवरील पोस्ट केलेल्या सर्व लेखक / कवींच्या साहित्यामधील विचार हे लेखकांचे स्वत:चे आहेत. त्यासंदर्भात विश्व मराठी परिषद सहमत असेलच असे नाही.
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